झारखंड : व्यवस्था की अर्थी पर सिस्टम का अट्टहास, जब झोले में सिमट गई एक पिता की दुनिया, जिस फूल जैसे बेटे को उंगली पकड़कर चलना सिखाया, उसे थैले में भरकर बस की ठोकरें खाने को मजबूर हुआ बेबस पिता, चाईबासा सदर अस्पताल की पत्थरदिली ने मानवता को सरेआम नीलाम कर दिया।
खलारी। समाचार पत्र गणादेश के हवाले से झारखंड के कोल्हान प्रमंडल से एक ऐसी तस्वीर आई है जिसे देखकर आसमान भी रो पड़े और धरती फट जाए। यह खबर नहीं, बल्कि एक गरीब आदिवासी पिता के कलेजे की वह चीख है जो चाईबासा सदर अस्पताल की ऊंची दीवारों से टकराकर दम तोड़ गई। यहां एक मजबूर पिता, डिम्बा चातोम्बा, को अपने 4 साल के मासूम बेटे के शव को एक मामूली झोले (प्लास्टिक के थैले) में भरकर बस से घर ले जाना पड़ा। यह दृश्य उन तमाम सरकारी दावों के मुंह पर एक तमाचा है जो गरीब की सरकार होने का दम भरते हैं।
मिन्नतों का कत्ल, साहब, मेरे लाल को अंतिम विदाई तो सम्मान से दे दो
नोवामुंडी के बालजोड़ी गांव का रहने वाला डिम्बा चातोम्बा दो दिन पहले अपने लाडले को सीने से लगाकर इस उम्मीद में अस्पताल आया था कि उसका बच्चा फिर से आंगन में चहकेगा। लेकिन शुक्रवार को नियति ने उसकी गोद सूनी कर दी। मौत के बाद पिता का दुख उस वक्त और गहरा हो गया जब अस्पताल प्रशासन ने संवेदनहीनता की हदें पार कर दी। डिम्बा घंटो तक एम्बुलेंस के लिए गिड़गिड़ाता रहा, अधिकारियों के पैर पकड़ता रहा, लेकिन जवाब में उसे केवल पैरवी और पहुंच का पाठ पढ़ाया गया। उस गरीब के पास न तो जेब में पैसे थे और न ही सत्ता के गलियारों में कोई जान-पहचान।
हृदयविदारक मंजर, झोला बना मासूम का आखिरी पालना
जब घंटों की प्रतीक्षा के बाद भी सिस्टम का पत्थर दिल नहीं पसीजा, तो टूट चुके पिता ने जो किया वह किसी भी संवेदनशील इंसान की रूह कंपा देने के लिए काफी है। डिम्बा ने अपने चार वर्षीय बेटे की ठंडी पड़ चुकी देह को एक मामूली झोले में समेटा। जिस बच्चे को पिता ने अपनी बाहों के झूले में सुलाया था, आज उसे एक थैले में बंद कर वह बस स्टैंड की ओर चल पड़ा। फटी हुई चप्पल, आंखों में आंसू और कंधे पर टंगा वह झोला-जिसमें उसके जीवन की सबसे बड़ी कमाई (उसका बेटा) लाश बनकर पड़ी थी।
सफर की त्रासदी, बस की भीड़ में छुपाया अपना दुख
बस के सफर में वह पिता अपनी आंखों के आंसू और उस झोले को छुपाने की कोशिश करता रहा। जब यात्रियों को पता चला कि उस साधारण से दिखने वाले थैले में एक मासूम का शव है, तो पूरी बस में सन्नाटा पसर गया। लोग सिसक उठे, पर उस पिता की खामोशी व्यवस्था की अर्थी निकाल रही थी। यह केवल एक शव की यात्रा नहीं थी, बल्कि यह मुख्यमंत्री के उस नारे हेमंत है तो हिम्मत है की विफलता का सबसे वीभत्स रूप था। क्या एक आदिवासी बहुल राज्य में एक आदिवासी पिता की गरिमा का मूल्य एक एम्बुलेंस के थोड़े से डीजल से भी कम है।
व्यवस्था की मृत्यु पर सुलगते सवाल
आज डिम्बा चातोम्बा की सूनी आंखें और वह झोला झारखंड की सत्ता और प्रशासन से हिसाब मांग रहा है। क्या चाईबासा सदर अस्पताल की एम्बुलेंस केवल रसूखदारों के लिए सुरक्षित रखी जाती हैं ? क्या गरीब होना इतना बड़ा अपराध है कि मरने के बाद उसे दो गज का कफन और एक एम्बुलेंस की छत भी नसीब न हो ? यह घटना चीख-चीख कर कह रही है कि झारखंड में संवेदनाएं मर चुकी हैं और मानवता अस्पताल के गेट पर ही दम तोड़ चुकी है। अगर इस खबर को पढ़कर भी किसी की रूह नहीं कांपती, तो समझ लीजिए कि हम एक मृत समाज में जी रहे हैं।