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श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह की दिव्य प्रेम कथा जीवात्मा व परमात्मा के मिलन का प्रतीक है : देवी तन्नू पाठक

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कोरबा/बालकोनगर। परसा भांठा वार्ड में आयोजित संगीतमय श्रीमद् भागवत महापुराण कथा यज्ञ के छठवें दिन कथा वाचक देवी तन्नू पाठक ने अपने श्रीमुख से रुक्मिणी विवाह का प्रसंग सुनाया, फूलों की वर्षा की गई और भक्तगण भाव विभोर होकर झूम उठे।

कथा वाचक देवी तन्नू पाठक ने कहा कि यह कथा भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं में से एक है, जिसमें भक्ति, प्रेम और ईश्वरीय योजना का अद्भुत संगम है।

उन्होंने कथा को विस्तार से सुनाते हुए बताया कि विदर्भ देश के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी ने देवर्षि नारद और अन्य लोगों से श्रीकृष्ण के रूप, सौंदर्य, और वीरता की कहानियाँ सुनकर उन्हें मन ही मन अपना पति मान लिया था।

रुक्मिणी का बड़ा भाई रुक्मी, जो श्रीकृष्ण से द्वेष रखता था, इस विवाह के विरुद्ध था। उसने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर रुक्मिणी का विवाह चेदि नरेश राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल के साथ तय कर दिया, जो कि रुक्मिणी को स्वीकार नहीं था।

विवाह की तिथि निश्चित होने पर, रुक्मिणी ने एक ब्राह्मण के माध्यम से श्रीकृष्ण को एक गोपनीय पत्र भेजा। इस पत्र में उन्होंने अपने प्रेम का इजहार किया और उनसे विवाह से ठीक पहले, देवी अंबिका (पार्वती) के मंदिर जाने के दौरान उनका हरण करने का अनुरोध किया।

श्रीकृष्ण ने संदेश स्वीकार किया और अपने बड़े भाई बलराम के साथ विदर्भ की राजधानी कुंडीनपुर पहुँचे। जब रुक्मिणी देवी अंबिका के मंदिर में पूजा-अर्चना करने गईं, तो श्रीकृष्ण ने सभी राजाओं और रुक्मी के सामने उनका हरण कर अपने रथ में बिठा लिया और द्वारका के लिए प्रस्थान किया।

रुक्मी और अन्य राजाओं ने श्रीकृष्ण का पीछा किया, लेकिन श्रीकृष्ण और बलराम ने उन्हें पराजित कर दिया। रुक्मी को श्रीकृष्ण ने हरा दिया, लेकिन रुक्मिणी के अनुरोध पर उसे जीवनदान दे दिया।

द्वारका पहुँचकर, श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के साथ विधि-विधान से विवाह किया। इस प्रकार, यह दिव्य प्रेम कहानी विवाह के पवित्र बंधन में बंध गई।

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