कविता में कहानी
40 दिनों के वादों, मुरादों और फरियादों का चुनावी शोर थम गया। धर्म-कर्म और जाति-समुदाय की बंदिशों से परे वह सबसे बड़ा त्योहार गुजर गया।
रिझाने, मनाने, दूर तक जाने और अपने पास बुलाने के अनगिनत फसाने सुने-सुनाए गए।
अपने-पराए के गीत गाए, सच्चा-झूठा पर फिल्म दिखाए गए।
खट्टे-मीठे, कड़वे और तीखे, हर तरह का जायका परोसा गया। खाया गया और ठुकराया भी गया।
पैरों ने की मिलों की दौड़, अनगिनत कदम पांव चले, दरवाजे ने देखते ही पूछा, तू लौटकर आ ही गया।
चल अब नहा ले, चप्पलें छुपा दे, थोड़ा खा ले, बच्चों के साथ मुस्कुरा ले, अपनी निर्वाचन यात्रा के अनुभव सुना ले और फिर तकिए में जाकर अपनी चैन की नींद पा ले।
(“विकास”)
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