बड़े भैया बलराम जी और बहन सुभद्रा संग आज मौसी के घर रवाना होंगे “जगत के नाथ”, आइए उनकी मंगल यात्रा के साक्षी बन पाएं उत्सव का महाप्रसाद …देखें Video


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प्राचीन भारत की पुरातन सनातन संस्कृति की वैभवशाली परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आज स्वामी जगन्नाथ अपने बड़े भैया बलराम और बहन सुभद्रा के साथ रथ में सवार होकर अपनी मौसी के घर जाएंगे। सारा विश्व जगत के नाथ की इस भव्य यात्रा के साक्षी बनेंगे। पुरी की दो दिवसीय विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा समारोह में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी शामिल होंगी। स्वामी जगन्नाथ रथ यात्रा रविवार 7 जुलाई से शुरू हो गई है। इस अवसर के सहभागी बने लाखों श्रद्धालुओं की आमद हो चुकी है। इस बार भगवान जगन्नाथ की यह रथ यात्रा बहुत ही दुर्लभ संयोग से युक्त बताई जा रही है।

अनुपम झलक प्रस्तुत करते तीनों रथों को पुलिस अफसरों एवं भक्तों ने खींचकर भगवान जगन्नाथ मंदिर के सामने सिंहद्वार तक लाए हैं। सदियों की परंपरा के अनुसार सबसे पहले जगन्नाथ महाप्रभु के नंदीघोष रथ, इसके बाद देवी सुभद्रा के दर्पदलन एवं अंत में भाई बलभद्र के तालध्वज रथ को खींचकर लाया गया। रविवार को कई स्तरों पर धार्मिक अनुष्ठान की प्रक्रिया पूरी होने के बाद शाम में प्रतीकात्मक तौर पर रथ खींचा जाएगा। इसके बाद सोमवार को रथयात्रा की शेष प्रक्रिया पूरी होगी। यह रथ यात्रा हिंदू धर्म में विशेष स्थान रखता है। हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि पर विशाल रथ यात्रा निकाली जाती है, फिर आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष 10वीं तिथि पर इसका समापन होता है। इस रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र संग साल में एक बार प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मंदिर में जाते हैं। इस पवित्र रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने बहन और भाई संग पूरे नगर का भ्रमण करते हैं।

उल्लेखनीय होगा कि जगत के नाथ की रथ यात्रा में नगर भ्रमण करने के लिए भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम संग निकलेंगे, फिर गुंडिचा माता के मंदिर में प्रवेश करेंगे जहां पर कुछ दिनों के लिए रहेंगे। इस रथ यात्रा में तीन अलग-अलग रथ होंगे ,जिसमें भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बलराम शामिल होंगे। रथयात्रा में सबसे आगे बलराम, बीच में बहन सुभद्रा का रथ फिर सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। इन तीनों रथ की अपनी-अपनी खास विशेषताएं होंगी।


स्वामी जगन्नाथ के रथ की विशेषताएं
भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष अथवा गरुड़ध्वज कहा जाता है, इनका रथ लाल और पीले रंग का होता है। रथ हमेशा नीम की लकड़ी से बनाया जाता है। हर साल बनने वाले ये रथ एक समान ऊंचाई के ही बनाए जाते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ 44 फीट 2 इंच ऊंचा होता है। इस रथ में कुल 16 पहिए होते हैं। रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे आखिरी में चलता है।

रथ का नाम- नंदीघोष
ध्वज का नाम- त्रैलोक्यमोहिनी
ऊंचाई- 44 फीट 2 इंच
पहियों की संख्या- 16
संरक्षक- गरुड़
सारथी- दारुका
घोड़ों के नाम (सफेद)- शंख, बलाहक, सुवेता, दहिदाश्व
रथ की रस्सी का नाम- शंखचूड़ नागिनी
साथी देवता- मदनमोहन


भैया बलराम के रथ की विशेषताएं
रथयात्रा में सबसे आगे बड़े भैया बलराम जी का रथ चलता है। भैया बलरामजी के रथ को तालध्वज कहा जाता है और इसकी पहचान लाल और हरे रंग से होती है। बलराम का रथ 43 फीट 3 इंच ऊंचाई का होता है। भगवान बलराम के रथ में कुल 14 पहिए होते हैं और जिस रस्सी से इस रथ को खींचा जाता है उसे वासुकी कहते हैं।

रथ का नाम- तलध्वज
ध्वज का नाम- उन्नानी
ऊंचाई- 43 फीट 3 इंच
पहियों की संख्या- 14
संरक्षक- वासुदेव
सारथी- मातलि
घोड़ों के नाम (काला)- त्रिब्रा,घोरा, दीर्घशर्मा, शपथानव
रथ की रस्सी का नाम- बासुकी नाग
साथी देवता- रामकृष्ण


बहन सुभद्रा के रथ की विशेषताएं
देवी सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहा जाता है जो काले या नीले रंग का होता है। दोनों रथों के बीच में देवी सुभद्रा का रथ चलता है। देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 42 फ़ीट 3 इंच ऊंचा होता है। इस रथ में 12 पहिए होते हैं। जगन्नाथ मंदिर से रथ यात्रा शुरू होकर 3 Kilometre दूर गुंडीचा मंदिर पहुंचती है। इस स्थान भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। जिस रस्सी से देवी सुभद्रा का रथ खींचा जाता है उसका नाम स्वर्णाचूड़ा कहा जाता है।

रथ का नाम- दर्पदलन
ध्वज का नाम- नादंबिका
ऊंचाई- 42 फीट 3 इंच
पहियों की संख्या- 12
संरक्षक- जयदुर्गा
सारथी- अर्जुन
घोड़ों के नाम (लाल)- रोचिका, मोचिका, जीता, अपराजिता
रथ की रस्सी का नाम- स्वर्ण चूड़ा नागिनी
साथी देवता- सुदर्शन


हर साल अपनी मौसी के घर विश्राम करने जाते हैं भगवान
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा बड़े ही धूम-धाम के साथ निकाली जाती है। रथ को खींचने का नजारा बहुत ही अद्भत होता है। भक्त अपने प्रभु की रथयात्रा ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के साथ करते हैं। जिसे भी इस पवित्र रथ खींचने का सौभाग्य मिलता है उसे महाभाग्यशाली माना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से रथ यात्रा शुरू होकर गुंडीचा मंदिर में पहुंचता है जो भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार यहीं पर विश्वकर्मा ने इन तीनों प्रतिमाओं का निर्माण किया था, इस कारण से यह स्थान जगन्नाथ जी की जन्म स्थली भी है। यहाँ तीनों देव सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं।आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ फिर से मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। वापसी की यह यात्रा बहुड़ा यात्रा कहलाती है।

स्वर्ण की झाड़ू से होती है मार्ग की सफाई
तीनों रथ के तैयार होने के बाद इसकी पूजा के लिए पुरी के गजपति राजा की पालकी आती है। इस पूजा अनुष्ठान को ‘छर पहनरा’ नाम से जाना जाता है। इन तीनों रथों की वे विधिवत पूजा करते हैं और सोने की झाड़ू से रथ मण्डप और यात्रा वाले रास्ते को साफ किया जाता हैं।

भगवान के रथ को खींचते हुए यात्रा में शामिल होना बड़े पुण्य और सौभाग्य की बात है। जो भक्त स्वामी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है, वह सारे कष्टों से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति जगन्नाथ को प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाता है वो सीधे भगवान विष्णु के उत्तम धाम को प्राप्त होता है। जो भी व्यक्ति इस रथयात्रा में शामिल होकर इस रथ को खींचता है उसे सौ यज्ञ करने के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।

इस तरह से आरंभ हुई थी यह परंपरा
इस संबंध में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में रथ यात्रा के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस कारण से हिंदू धर्म में इस रथ यात्रा का विशेष महत्व बताया गया है। माना जाता है कि एक दिन स्वामी जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने उनसे द्वारका के दर्शन कराने का निवेदन किया। तब स्वामी जगन्नाथ ने उनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए उन्हें रथ में बिठाकर पूरे नगर का भ्रमण कराया और इस तरह से विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा की परंपरा की शुरुआत हुई।

पुरी के धाम में भगवान श्रीकृष्ण अपने भैया बलराम और बहन सुभद्रा समेत हैं विराजमान
पुरी के जगन्नाथपुरी मंदिर में भगवान कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ विराजमान हैं। क्या आपने सोचा है कि भगवान जगन्नाथ पुरी में क्यों विराजमान हैं। दरअसल एक बार द्वारकापुरी में भगवान श्रीकृष्ण रात में सोते समय अचानक नींद में राधे-राधे बोलने लगे। भगवान कृष्ण की पत्नी रुक्मणीजी ने जब सुना तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान की यह बात अन्य सभी रानियों को भी बताई। सभी रानियां आपस में विचार करने लगीं कि भगवान कृष्ण अभी तक राधा को नहीं भूले हैं। सभी रानियां राधा के बारे में चर्चा करने के लिए माता रोहिणी के पास पहुंचीं। माता रोहिणी से सभी रानियों ने आग्रह किया कि भगवान कृष्ण की गोपिकाओं के साथ उनकी रहस्यात्मक रासलीला के बारे में बताएं। पहले तो माता रोहिणी ने उन सभी को टालना चाहा, लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा- ठीक है सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों। मां रोहिणी द्वारा भगवान श्री कृष्ण की रहस्यात्मक रासलीला की कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलराम अचानक महल की ओर आते दिखाई दिए। देवी सुभद्रा ने अपने दोनों भाईयों को उचित कारण बताकर दरवाजे पर ही रोक लिया। महल के अंदर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण,सुभद्रा और बलराम तीनों को ही सुनाई दे रही थी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही बहन सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। तभी वहां पर देवर्षि नारद आ गए। नारदजी को देखकर तीनों पूर्ण चेतना में वापस लौटे। नारद जी ने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि हे भगवान आप तीनों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। भगवान श्री कृष्ण ने तथास्तु कह दिया। कहते हैं भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा जी का वही स्वरूप आज भी जगन्नाथपुरी में है, जिसे स्वयं देवताओं के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने बनाया था।


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