एक वक्त था, जब राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहे जाने वाले पहाड़ी कोरवा पथरीले पहाड़ों से उतरने को तैयार न थे। काफी प्रयासों के बाद उन्होंने आबादी के बीच गांव में आकर रहना शुरु किया और फिर इन विशेष संरक्षित जनजातियों के पांव भी विकास की राह में बढ़ते चले गए। कभी बमुश्किल चैथी-पांचवीं के बाद स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों ने काॅलेज में कदम रखा और आज कई युवा न केवल स्नातकोत्तर की डिग्री ले चुके हैं, स्वयं शिक्षक के गरिमामयी पद पर आसीन होकर गांव के बच्चों के लिए शिक्षा का उजियारा बन रहे हैं। पहाड़ पथरीले रास्तों पर चलकर मुख्य धारा से जुड़ चुके कुछ ऐसी ही चिंगारियां अब देश के लोकतंत्र की मशाल बन नगरीय निकाय चुनाव में मतदान में भागीदार बन इस बड़ी जिम्मेदारी को निभाने जा रहीं हैं।