व्याख्याता राकेश टंडन ने साझा किए वर्ष 2005 में सुदूर वनांचल ग्राम साखो में मतदान ड्यूटी के दौरान के अपने अनुभव। वर्तमान में स्वामी आत्मानंद उत्कृष्ट विद्यालय उतरदा में पदस्थ हैं।
कोरबा(thevalleygraph.com)।हमारा दल मतदान सामग्री लेकर आधी रात 12 बजे मतदान केंद्र पहुंच गए थे। सदियों का मौसम था और घने जंगलों के बीच बसे उस गांव में बिताई मतदान से पहले वाली उस ठिठुरती रात की याद आज 18 साल बाद भी पूरी तरह ताजा है। हाथी प्रभावित तो था ही, ग्रामीणों ने यह कहकर और भी भयभीत कर दिया कि आधी रात के बाद गांव के आस-पास भालू भी चले आते हैं। उन्होंने कहा- अंगीठी जला दी है और खाना भी तैयार है। पहले थोड़ा गरम हो जाइए, फिर गर्मा-गरम खाना खासकर आराम से सो जाएं। जब तक अंगीठी जलती रहेगी, जंगली जानवर यहां नहीं आएंगे। पर अब नींद कहां आने वाली थी, फिर भी सोना जरूरी था। फिर क्या था, हाथी-भालू के डर के बीच उस अंगीठी के सहारे हमने वह रात गुजार दी और अगले दिन मतदान प्रक्रिया नियमानुसार पूर्ण कर लौट आए।
यह बातें स्वामी आत्मानंद उत्कृष्ट विद्यालय उतरदा में पदस्थ व्याख्याता राकेश टंडन ने वर्ष 2005 में हुए पंचायत चुनाव के दौरान अपने अनुभव नवभारत से साझा करते हुए कहीं। सशक्त लोकतंत्र के निर्माण में चुनावी समर का जयघोष हो चुका है। इस बीच पांच साल बाद एक बार फिर अपना नेता चुनने का वक्त करीब आ रहा है। इस प्रक्रिया में जितने अहम मतदाता हैं, सुरक्षित और व्यवस्थित मतदान की जिम्मेदारी निभाने वाले मतदानकर्मी की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। वे घर-परिवार, तीज-त्योहार और छुट्टियों समेत तमाम सुविधाएं छोड़कर केवल इसलिए मतदान के अनिवार्य कर्तव्य को निभाने जुट जाते हैं, ताकि आपके और हमारे लिए एक मजबूत, संवेदनशील व जनहितैशी सरकार के निर्माण का रास्ता तैयार हो सके। आज की हाइटेक व्यवस्था और तमाम सुविधाओं के विपरीत बीते कल में तब के मतदान कमियों ने अनेक मुश्किलों का सामना करते हुए कई चुनाव कार्य निपटाए हैं। इन्हीं में एक व्याख्याता श्री टंडन ने बताया कि वर्ष 2005 के पंचायत चुनाव में उनकी ड्यूटी ग्राम साखो में मतदान कराने की लगी थी। वैसे तो वह पोड़ी उपरोड़ा विकासखंड का एक गांव है, लेकिन उस रास्ते जाने पर गहरे डुबान को नाव से पार करना पड़ता। इसलिए अजगरबहार से सतरेंगा व गढ़-उपरोड़ा होकर वे साखो पहुंचे थे। तब इस रास्ते में कई जगह पुल तक नहीं बने थे। बारिश के मौसम में लोगों को नाला पार कर पैदल जाना होता था। ठंड में नाला सूखे थे, इसलिए कच्चे रास्ते से उनका दल चारपहिया में सवार होकर साखो पहुंचा था।
पैरा का बिछौना, ढोढ़ी का पानी और नक्सली मूवमेंट की भी हुई थी चर्चा
उन्होंने बताया कि जब रात 12 बजे वे पहुंचे तो गांव में ऐसा सन्नाटा पसरा था कि हम सोचने लगे कि कोई एक मतदाता भी यहां है या नहीं। फिर पता चला कि क्षेत्र के नजदीकी ग्राम कुटरुवां में नक्सली मूवमेंट होने की चर्चा से गांव में यह सन्नाटा है। एक और डर हमारे मन-मस्तिष्क में घूमने लगा। पीने के लिए तब गांव के लोग वहां ढोढ़ी का पानी भरते थे । मतदान केंद्र के लिए किसी तरह तार खींचकर बूथ तक बिजली की जुगत भी ग्रामीणों ने कर रखी थी भोजन के बाद उन्हें सोने के लिए पैरा का बिछौना मिला, जिसकी गर्माहट के ऊपर दरी बिछाकर सो गए। जैसे-वैसे रात कटी और अगले दिन पूरे वक्त मतदान में व्यस्त हो गए। मतदान पूरा होते-होते शाम के सात बज गए। काम निपटाकर वे वापस सुरक्षित जिला मुख्यालय लौट आए।