महज चार से छह जमात पढ़कर गली-गली सांपों के तमाशे से दो वक्त की जुगत सीखना ही इन बच्चों की तालीम


परिवार के लिए दो वक्त की रोटी के लिए गांव-गांव परिवार व बच्चों को लेकर घूमते हैं सपेरे, खानाबदोश जीवन में ठौर के अभाव में छूट जाता है स्कूल

कोरबा(thevalleygraph.com)। हमारे इसी समाज में कुछ समुदाय ऐसे भी हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सांपों के खेल-तमाशे को ही अपने बच्चों के लिए आज की तालीम और कल का रोजगार मानते हैं। इन्हें अपनी पिटारी में ढेर सारे सांप लिए गली-गली गांव-गांव घूमते देखा जा सकता है। इन्हें हम सपेरा कहते हैं, जिनके लिए अपने परिवार व बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी कमाने यही हुनर उन्हें आज भी सबसे बड़ा काम लगता है। पर इन सब के बीच खाना-बदोश जीवन में रहने वाले इनके बच्चे स्कूल से दूर हो जाते हैं। बमुश्किल तीसरी से पांचवीं तक की पढ़ाई के बाद स्कूल छूट जाता है और बिना ठौर के इस सफर में उनके शिक्षा की डगर यहीं समाप्त हो जाती है।
समाज के हर वर्ग और अंतिम छोर पर रहने वाले परिवार को भी मुख्य धारा में लाने सरकारें कई प्रकार के प्रयास कर रहीं। पर ढेरों जुगत के बाद भी एक वर्ग ऐसा भी है, जो आज भी मुश्किलों और कठिनाइयों के बीच गुजर-बसर करने विवश है। इनमें सपेरा समुदाय भी शामिल है, जिनके बच्चों का जीवन स्कूल और शिक्षा के बगैर ही आगे बढ़ रहा। कुछ ऐसे ही हालात से कुरुडीह में रहने वाले सपेरों का परिवार गुजर रहा है। किसी तरह इन लोगों को जमीन के लिए सरकारी पट्टे प्राप्त हो गए, लेकिन जीवनयापन के लिए रोजगार के संसाधन के नाम पर केवल अलग-अलग प्रजाति के सर्प ही मौजूद हैं। आर्थिक स्थिति मजबूत न होने का नतीजा यह, कि सपेरों के बच्चे प्राथमिक कक्षाओं से आगे की पढ़ाई कर ही नहीं पाते और माता-पिता के साथ अपने परंपरागत कार्य में हाथ बंटाते बड़े हो जाते हैं। समय के साथ आ रही जरा सी जागरुकता से हालांकि अब सपेरे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित तो हैं, पर कोई सार्थक विकल्प नहीं होने के कारण इसी राह पर चलते रहने को मजबूर हैं। यह समस्या केवल कुरुडीह के सपेरों की ही नहीं, जिले में ऐसे कई गांव हैं, जहां रहने वाले इस समुदाय के लोगों के लिए सांपों के तमाशे के अलावा कोई और रास्ता नहीं होने के कारण वे अपने बच्चों को न तो स्कूल में आगे की पढ़ाई करा पाते हैं और न ही भविष्य में उनके लिए रोजगार या स्वरोजगार के लिए उचित विकल्प की ओर सोच पाने में ही सक्षम हो पा रहे हैं।

कुरुडीह में 100 की आबादी, पीढ़ियों से यही काम
करतला विकासखंड के मुकुंदपुर पंचायत के अंतर्गत आने वाले कुरुडीह के एक मोहल्ले की पहचान सपेरों की बस्ती के रुप में होती है। यहां पर बच्चों-बड़ों व महिलाओं को मिलाकर करीब 100 लोगों की आबादी निवास करती है। चार दशक से भी ज्यादा समय से इन लोगों का बसेरा यहीं पर है। वे पशुपालकों के अंदाज में अपने साथ जहरीले सांपों को रखते हैं। सपेरों के बच्चे इनके साथ बिल्कुल दोस्त की तरह घुले-मिले हैं और उनके से खौफ जैसी कोई बात इनमें देखी नहीं जा सकती।

स्कूल-मकान हैं, पर जागरुकता की काफी कमी
वैसे तो इन सपेरों को गांव की गोचर भूमि का उपयोग का अधिकार और सरकारी योजना से रहने के लिए घर मिला हुआ है, पर परिवार के पालन-पोषण की सही राह को लेकर उचित मार्गदर्शन का अभाव उन्हें आज भी अजागरुक की श्रेणी में ले आता है। गांव में प्राथमिक और मिडिल स्कूल भी है, पर उनके परिवार के बच्चे पांचवी से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाते। शिक्षा के बीच बीच में धन की कमी उनके लिए सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है।
वर्षों से यही काम कर घर का गुजर-बसर : नैनाबाई
कुरुडीह की रहने वाली नैना बाई ने बताया कि वर्षों से वे यही रह रहे और लंबे समय से यही काम करते आ रहे। वे सांपों के साथ सभी घर में ही रहते हैं और परिवार के पुरुष पूरे दिन उन्हें लेकर अपनी आजीविका की जुगत करते हैं। यहां-वहां सर्पों का प्रदर्शन कर मिलने वाले अनाज व रुपयों से अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं।

छग ही नहीं, एमपी तक की यात्रा कर चुके : कंटगीलाल
कुरुडीह में ही रहने वाले कटंगीलाल बताते हैं कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश तक सफर करने के साथ अपने परिवार के लिए धन की व्यवस्था की जाती है। अमरकंटक और चैतुरगढ़ के जंगल से मिलने वाली जड़ी-बूटी भी उनकी कमाई का एक महत्वपूर्ण जरिया है।

लोगों के लिए भले डर, पर यही सर्प हमारे जीवन: खजांची
सोहागपुर में रहने वाले सपेरा खजांची ने कहा कि गांव में जितने भी युवा और पुरुष हैं, वे सभी परिवार की जरूरत की पूर्ति करने के लिए सांपों को यहां-वहां दिखाने का काम करते हैं। एक तरह से दूसरों के लिए डर का कारण बनने वाले विषधर इस गांव के लोगों को जीवित रखने का अहम संसाधन बने हुए हैं।

कई बार 100 किमी तक पैदल चक्कर: दुबराज
युवा सपेरा दुबराज ने बताया कि बहुत दूर-दूर तक जाकर सांप दिखाते हैं और कई-कई हफ्ते घूमकर जो कुछ मिलता है, उससे परिवार पालते हैं। इसके लिए कई बार वे पैदल ही 100 किलोमीटर तक पार कर जाते हैं। जहां भी अंधेरा हो जाता है, वहीं ठहरकर जमीन पर सो जाते हैं और फिर अगली सुबह आगे निकल जाते हैं।


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